मनुस्मृति दहन - एक युगांतरकारी घटना

मनुस्मृति दहन - एक युगांतरकारी घटना

विजेंद्र मेहरा

25 दिसंबर का भारतवर्ष में ऐतिहासिक महत्व है। इस दिन जहां पूरी दुनिया में क्रिसमस का त्यौहार मनाया जाता है, वहीं यह दिन हमारे देश के इतिहास में एक अलग कारण से भी जाना जाता है। आज से लगभग 95 वर्ष पूर्व सन 1927 में आज ही के दिन महाराष्ट्र के वर्तमान रायगढ़ जिला के महाड़ में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे, ए वी चित्रे, सुरेन्द्रनाथ टिपनिस व उनके अन्य साथियों ने मनुस्मृति को सार्वजनिक तौर पर जलाया था। 

महाड़ सत्याग्रह

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अपने साथियों के साथ मिलकर 20 मार्च 1927 को सार्वजनिक कुएं से दलितों के पानी के इस्तेमाल के लिए महाड़ सत्याग्रह अथवा चावदार ताल आंदोलन का आयोजन किया। यह वह दौर था जब दलितों के साथ भारी जातीय भेदभाव हो रहा था। उन्हें सार्वजनिक कुओं से पानी पीने,रास्तों व सड़कों के इस्तेमाल की इजाज़त नहीं थी। अगस्त 1923 में बम्बई विधान परिषद ने सरकार द्वारा निर्मित व संचालित जगहों को सबके द्वारा इस्तेमाल करने के संदर्भ में एक प्रस्ताव पारित किया। जनवरी 1924 में महाड़ नगर परिषद जोकि बम्बई प्रान्त का ही एक हिस्सा था, ने इस प्रस्ताव को लागू करने का निर्णय लिया परन्तु उच्च जातियों के घोर विरोध के कारण यह लागू न हो सका। इसके फलस्वरूप सन 1927 में अम्बेडकर ने सार्वजनिक कुओं से दलितों के पानी के इस्तेमाल को लेकर शांतिपूर्वक सत्याग्रह करने का निर्णय लिया। उन्होंने कोंकण क्षेत्र के महाड़ को इसलिए चुना क्योंकि इस जगह दलितों के आंदोलन को उच्च जाति के सामान्य तबके के एक हिस्से का भी समर्थन प्राप्त था। इनमें ए वी चित्रे व सुरेन्द्रनाथ टिपनिस चन्द्रसेनिया कायस्थ प्रभु व गंगाधर नीलकंठ सहस्रबुधे चितपावन ब्राह्मण थे। सुरेंद्र नाथ टिपनिस जोकि महाड़ नगर परिषद के अध्यक्ष थे, उन्होंने सार्वजनिक कुओं को सब जातियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने को लेकर निर्णय लिया व डॉ आंबेडकर को महाड़ आकर आम सभा करने का न्यौता दिया। सभा के बाद अम्बेडकर व उनके साथियों ने चावदार टैंक से पानी पिया। उन्होंने इसी दौरान अनुसूचित जाति की महिलाओं से आह्वान किया कि वे उस दिन के बाद अपनी साड़ी को घुटनों तक बांधने के बजाय उच्च जाति की महिलाओं की तर्ज़ पर अपने पांव तक पहनें। इस कार्य में उच्च जाति की क्रांतिकारी महिलाओं लक्ष्मीबाई टिपनिस व इंद्राबाई चित्रे ने उनका सहयोग किया। 
मनुस्मृति दहन

मनुस्मृति दहन की पटकथा उसी दिन लिख दी गयी थी जब महाड़ सत्याग्रह के दौरान अम्बेडकर व उनके साथियों द्वारा चावदार टैंक से पानी पीने के बाद उच्च जाति के लोगों द्वारा टैंक के दूषित होने का तर्क दिया गया था। उन्होंने गौमूत्र व गाय के गोबर के मिश्रण से बने उत्पाद के 108 घड़े चावदार टैंक में उल्टे थे व कुएं की सफाई की थी। यह मनुवादी विचारों व जातिवाद की चरम सीमा थी। इस बात से आक्रोशित डॉ अम्बेडकर ने आन्दोलन को और तेज करने का निर्णय लिया व 26 - 27 दिसम्बर 1927 को महाड़ में सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया। इस पर उच्च जाति के लोगों ने चावदार टैंक को अपनी निजी संपत्ति बताते हुए मुंबई उच्च न्यायालय में एक मुकदमा दायर कर दिया व डॉक्टर अंबेडकर के आंदोलन पर रोक लगाने की मांग की। मुकद्दमे के न्यायालय में विचाराधीन होने के कारण डॉ आंबेडकर का सत्याग्रह जारी न रह सका। सन 1937 में न्यायालय के निर्णय के बाद ही चावदार कुएं से पानी के सार्वजनिक इस्तेमाल की इजाज़त दलितों को हासिल हुई। उच्च जाति के लोगों की कार्रवाई से आक्रोशित डॉ भीमराव अंबेडकर ने जातिवाद,जातीय विद्वेष,नफरत व भेदवाव की जनक मनुस्मृति को जलाने का निर्णय लिया। उन्होंने गंगाधर नीलकंठ सहस्रबुधे को यह कार्य सौंपा जो स्वयं उच्च जाति के चितपावन ब्राह्मण थे। इस तरह यह कोई जातीय आंदोलन नहीं था बल्कि जातिवाद को खत्म करने का एक सामाजिक आंदोलन था। इस किताब की प्रतिलिपि को जलाकर डॉ आंबेडकर व उनके सहयोगियों ने भारतवर्ष की जातीय व्यवस्था पर करारी चोट की। मनुस्मृति से निकली मनुवादी विचारधारा *ढोल, शुद्र, गंवार, पशु, नारी - सकल ताड़ना के अधिकारी* को उन्होंने चुनौती दी कि जन्म जन्मांतर से चल रही इस पिछड़ी विचारधारा के दिन अब लद चुके हैं। उन्होंने मजदूरों - किसानों के वर्गीय आर्थिक शोषण के साथ ही दलितों, महिलाओं, वंचितों, पिछड़ों व अन्य समुदायों के सामाजिक शोषण के खिलाफ निर्णायक आवाज़ बुलंद की।

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