भगत सिंह की प्रतिमा व संघ परिवार का डर

भगत सिंह की प्रतिमा व संघ परिवार का डर

विजेंद्र मेहरा

हिमाचल प्रदेश के शिमला शहर का समरहिल चौक आज कल काफी चर्चा में है। चर्चा की गर्माहट चरम पर है। यह चौक सन 1971 में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की स्थापना से लेकर ही हमेशा सुर्खियों में रहा है। असल में हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय शिमला व इस से ऐतिहासिक तौर पर जुड़ा समरहिल चौक देश व प्रदेश के लोकतांत्रिक परिपेक्ष्य में अहम स्थान रखता है। इसके एक तरफ प्रदेश विश्वविद्यालय है। दूसरी तरफ एडवांस स्टडी है जो उच्च अध्ययन का संस्थान होने के साथ ही अंग्रेजों का शासन गृह व महात्मा गांधी का जेलखाना भी रहा। तीसरी ओर रानी अमृत कौर का बंगला है जो आज़ादी के आंदोलन का केंद्र भी रहा। इसी समरहिल चौक से पनपीं जनवाद की जड़ें पूरे प्रदेश में। यह चौक केवल छात्र आंदोलन का गवाह नहीं बना बल्कि कर्मचारी व अध्यापक आंदोलन के बीज भी काफी जोरदार तरीके से यहीं से पनपे। और तो और छात्रों,कर्मचारियों व अध्यापकों के संयुक्त जनवादी आंदोलन का प्रत्यक्ष गवाह बना यह चौक। जब-जब समरहिल की बात होगी तो विश्विद्यालय व इस चौक की बात किये बगैर कोई भी चर्चा अधूरी ही रहेगी। आज पूरे प्रदेश में छात्र,मजदूर,नौजवान,किसान,महिला आंदोलन के अगुआ दस्ते यहीं से निकले। शिमला विश्विद्यालय से लोकतांत्रिक मूल्यों के उपजे बीज आज प्रदेश के हर कोने में सैंकड़ों हज़ारों पौधों के रूप में अंकुरित हो चुके हैं। यह क्रम लगातार जारी है व रहेगा। शायद ही दुनिया की कोई ताकत इस क्रम को तोड़ पाएगी। शासक वर्ग का भारी दमन,जेल की सलाखें,असंख्य मुकद्दमे व दसियों अन्य तरह के प्रताड़नापूर्वक कदम भी हिमाचल प्रदेश के लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक शिमला विश्विद्यालय व हमेशा साये की तरह इसके साथ रहने वाले समरहिल चौक के हौंसलों को नहीं तोड़ पाए। पिछले पचास सालों से विभिन्न नारों के ज़रिए उठी मांगें तो अब इसकी आवो हवामें पूरी तरह रच बस व घुल गयी हैं। इस जिंदादिली से ही तो अमर हो गया है शिमला विश्वविद्यालय व इसका समरहिल चौक। पिछले पांच दशकों में अलग-अलग सरकारों व उनके आका शासक वर्ग ने समरहिल की इस आज़ाद आवोहवा को कैद करने की भरसक नाकाम कोशिशें की हैं परन्तु हर बार उसकी स्थिति खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे जैसी ही रही है।
समरहिल चौक,प्रतिमा व राजनीति

इस बार समरहिल चौक एक बार फिर चर्चा में है। बहस का मुद्दा है कि समरहिल चौक पर शहीद भगत सिंह की प्रतिमा लगेगी या फिर स्वामी विवेकानंद की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,भाजपा व इस से जुड़े हुए एबीवीपी जैसे आनुषांगिक संगठन प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जान बूझकर इस विवाद को हवा दे रहे हैं। संघ परिवार की हमेशा से यह  सोची-समझी रणनीति रही है कि जिस देशभक्त अथवा महापुरुष की सोच से उनकी सोच मेल नहीं खाती है,उसको रोकने के लिए किसी अन्य दूसरे महापुरुष को सुनियोजित तरीके से उनके सामने पेश किया जाए व उस विराट व्यक्तित्व को या तो छोटा करके दिखाया जाए,या फिर उसे विवादों में घसीटा जाए या फिर उसके व्यक्तित्व को ही गौण कर दिया जाए। इसके अनेकों उदाहरण भूतकाल में स्पष्ट नजर आएंगे। नेहरू बनाम पटेल,गांधी बनाम सुभाष चंद्र बोस,गांधी बनाम अम्बेडकर आदि इस के कुछ चुनिंदा उदाहरण हैं। शहीद भगत सिंह की प्रतिमा को समरहिल चौक पर लगाने व समरहिल चौक का नाम शहीद भगत सिंह चौक करने पर रोक लगाने के लिए सुनियोजित तरीके से स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष के नाम को जान बूझकर आगे किया जा रहा है ताकि संघ परिवार अपने संकीर्ण मंसूबों में सफल हो सके। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि शहीद भगत सिंह व स्वामी विवेकानंद जो दोनों इस देश की अमूल्य धरोहर हैं, उन्हें ही अब अपने एजेंडे को पूर्ण करने के लिए संघ परिवार द्वारा आमने-सामने कर दिया गया है। आखिर ऐसा क्यों?
विचारों का युद्ध

संघ परिवार शहीद भगत सिंह की प्रतिमा समरहिल चौक पर क्यों स्थापित नहीं होने देना चाहता है जबकि समरहिल की जनता,छात्र समुदाय का ज़्यादातर हिस्सा व विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा छात्र संगठन एसएफआई इसके हक में है? यह सब वैचारिक संघर्ष का प्रतिबिंबन है। एक तरफ वह विचार है जो मानवता,मानवीय मूल्यों,धार्मिक सहिष्णुता,भाईचारे को कायम व मजबूत करने तथा हर तरह के शोषण,ज़ुल्म,अत्याचार व वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था को तहस-नहस करने की बात करता है व दूसरी तरफ वह विचार है जो धर्मांधता,संप्रदायिकता,पिछड़ेपन व वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था की हिमायत करता है। पहला विचार भगत सिंह का है जो इंसान के हाथों इंसान के हर तरह के शोषण को खत्म करने की बात करता है। दूसरा विचार संघ परिवार का है जो समाज में धार्मिक व जातीय बंटवारा,वैमनस्य,नफरत व इंसान के हाथों इंसान की लूट को बरकरार रखना चाहता है। संघ परिवार की समस्या दो तरफा है। आज़ादी के आंदोलन से गायब रहे व अंग्रेजों के कट्टर समर्थक रहे संघ परिवार की अपनी ही छाया बारम्बर उस से अनेकों प्रश्न पूछती है व उसे कुंठित करती है। संघ परिवार को हाथी के दांत खाने के और,दिखाने के और वाली कहावत की तर्ज़ पर चाहे-अनचाहे दो रूप दिखाने ही पड़ते हैं। एक असली है व दूसरा उस से उल्टा बिल्कुल नकली। उसे मालूम है कि भगत सिंह भारत देश की करोड़ों जनता के आदर्श,प्रतीक व रीयल लाइफ हीरो हैं। इसलिए भगत सिंह की लोकप्रियता के मध्यनज़र जन्मदिन व शहीदी दिवस पर उन्हें माल्यार्पण करना व श्रद्धांजलि देना संघ की मजबूरी है।
दकियानूसी सोच व सुनियोजित एजेंडा

संघ परिवार को यह मालूम है कि अगर भगत सिंह के विचारों को आगे बढ़ने से ना रोका गया तो सनातन संस्कृति व धर्म की पुनर्स्थापना के नाम पर जिस रूढ़िवादी सोच व पिछड़े विचारों को वे आगे बढ़ाना चाहते हैं,भगत सिंह उसके रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बन कर सामने आएंगे व टकराएंगे। यह उनके लिए दो धारी तलवार जैसी स्थिति है। संघ परिवार अपने एजेंडा में बिकुल स्पष्ट है। उसे मालूम है कि भारतीय संविधान के विपरीत हिंदू राष्ट्र की स्थापना में भगत सिंह,डॉक्टर भीमराव अंबेडकर,महात्मा गांधी व सुभाष चंद्र बोस के विचार हमेशा आड़े आएंगे। इसलिए बेशक इनके जन्मदिन व पुण्यतिथि पर मजबूरीवश उसे माल्यार्पण व श्रद्धांजलि कार्यक्रम तो करने पड़ेंगे परंतु अपने हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य को हासिल करने के लिए आज़ादी के नायकों के विचारों को हाशिए पर धकेलना भी पड़ेगा। यह अचानक से नहीं है कि भोपाल में संघ परिवार के कार्यकर्ता भगत सिंह की प्रतिमा को तोड़ते हैं। यह भी अचानक से नहीं है कि संघ परिवार से जुड़ी भाजपा सरकारें भगत सिंह को पाठयकर्मों में स्थान नहीं देतीं बल्कि अगर वह पाठयवस्तु में हों भी तो उन्हें किताबों से हटा दिया जाता है। यह भी संयोगवश नहीं है कि भगत सिंह के विचारों को वे योजनाबद्ध तरीके से दरकिनार करते हैं। समरहिल चौक के साथ स्थित विश्वविद्यालय परिसर में जब भगत सिंह व पंडित दीनदयाल उपाध्याय की चेयर स्थापित करने की बात आती है तो संघ परिवार,भाजपा सरकार व उसका पिछलग्गू विश्वविद्यालय प्रशासन राष्ट्रनायक भगत सिंह के बजाए संघ के नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय को प्राथमिकता देते हैं। क्या कभी कोई इन दोनों की तुलना की कल्पना भी कर सकता है। एक आज़ादी का निर्विवाद हीरो जिसने मात्र 23 साल की उम्र में देश की आजादी के लिए फांसी का फंदा चूम लिया और दूसरा वह जो स्वयं व जिसकी सोच के ध्वजवाहक आज़ादी के आंदोलन से न केवल कोसों-कोसों दूर रहे बल्कि अंग्रेज़ों के मुखबिर बने। जिन्होंने सरेआम माफियां मांगी। गुलामी की। अंग्रेज़ों से वफादारी निभाने पर पेंशनें लीं। वास्तव में यह विचारों का युद्ध है। भगत सिंह व उनके क्रांतिकारी विचार बनाम संघ परिवार के दकियानूसी व गुलामी के विचार।
आखिर प्रतिमा पर विवाद क्यों

वर्ष 2012 से 2017 तक की तत्कालीन नगर निगम शिमला की समरहिल वार्ड से पार्षद ने जनता,छात्र समुदाय व एसएफआई की मांग पर समरहिल चौक पर शहीद भगत सिंह की प्रतिमा स्थापित करने का प्रस्ताव नगर निगम सदन में रखा तो भाजपा के कुछ नेताओं,पार्षदों तथा एबीवीपी ने इसका खुलकर विरोध किया व उन्होंने समरहिल चौक पर स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा स्थापित करने की मांग कर डाली। दुर्भाग्य देखिए संघ परिवार ने अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा से भगत सिंह को भी अछूता नहीं छोड़ा। विवाद इतना बढ़ गया कि अंत में नगर निगम के तत्कालीन महापौर,उप महापौर,पार्षदों,नगर निगम सदन व प्रशासन ने सर्वसम्मति से यह फैसला किया कि समरहिल चौक पर शहीद भगत सिंह की प्रतिमा लगेगी व बालूगंज चौक पर स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा स्थापित होगी। यह अपने आप में तत्कालीन नगर निगम प्रशासन का बेहतरीन निर्णय था। इस तरह दोनों महापुरुषों को सम्मान मिला। परन्तु देखिए तो सही कि राजनीति किस कदर संघ परिवार के सिर चढ़कर बोल रही है। तत्कालीन नगर निगम के बाद वर्तमान नगर निगम सत्तासीन हुआ और भगत सिंह की प्रतिमा को समरहिल चौक व स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा को बालूगंज चौक पर स्थापित करने के निर्णय को पहले ठंडे बस्ते में डाल दिया व बाद में समरहिल चौक पर स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा को स्थापित करने का जुगाड़ शुरू कर दिया। इसकी मांग संघ परिवार व एबीवीपी जैसे संगठनों से ही शुरू करवाई गयी। वर्तमान दौर में संघ परिवार की विवेकानन्द की प्रतिमा की स्थापना के साथ यह मांग भी जुड़ गई है कि उनकी नज़र में वीर परन्तु असल में माफीवीर व अंग्रेजों से उनकी मदद स्वरूप इनाम के रूप में 60 रुपये की पेंशन पाने वाले विनायक दामोदर सावरकर के नाम पर समरहिल चौक का नामकरण होना चाहिए। अपनी इस मांग को पुख्ता करने के लिए एबीवीपी ने समरहिल चौक की सभी दीवारें स्वामी विवेकानंद व सावरकर,जो विचारों में आपस में प्रतिकारक,विरोधाभासी,बाधक व विरोधी हैं,के फोटो व उक्तियों से रंग दी हैं। यह शुद्ध राजनीति है। 
भगत सिंह व विवेकानंद पूरक या विरोधाभासी

अगर स्वामी विवेकानंद आज जिंदा होते तो क्या वह भगत सिंह की इस बेइज्जती को सहन कर पाते। कतई नहीं। स्वामी विवेकानंद बहुत महान व्यक्तित्व रहे हैं। भाजपा व संघ परिवार एबीवीपी को आगे करके स्वामी विवेकानंद के नाम पर राजनीति करके शहीद भगत सिंह की कुर्बानियों की बेइज्जती कर रहे हैं। आखिर भगत सिंह से संघ परिवार को क्या दिक्कत है। वास्तव में उनका विचार ही उनकी दिक्कत है। संघ परिवार धर्मांधता व सांप्रदायिकता की राजनीति करता है। वह वर्तमान लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को कायम रखना चाहता है। वह अमीर और गरीब के अंतर को ना केवल जिंदा रखना चाहता है बल्कि उसे और मजबूत करना अपना परम् धर्म मानता है। वह राष्ट्रवाद के नाम पर जनता में फूट डालना चाहता है व धर्मनिरपेक्ष राज्य के बजाए जनता विरोधी हिन्दू राष्ट्र कायम करना चाहता है। भगत सिंह समाज में प्रेम,भाईचारे,सहयोग,सद्भावना,समानता व सहिष्णुता के प्रतीक हैं। वह कहते हैं कि जाति धर्म के झगड़े छोड़ो, इंसानियत से नाता जोड़ो। यह संघ परिवार के उस नारे के बिल्कुल विपरीत है जोकि एक देश में एक विधान,हिंदी,हिंदू,हिंदुस्तान के वर्चस्व की बात करता है। जो वर्तमान संविधान की जगह मनुवादी संविधान को लागू करना चाहता है। जो तिरंगे की जगह भगवा झंडे को स्थापित करना चाहता है। जो कहता है कि हिंदू राष्ट्र हर हाल में स्थापित होकर रहेगा। जो कहता है कि हिंदू धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है व मुस्लिमों को इस देश से बाहर खदेड़ा जाना चाहिए। यह देश मुस्लिमों का नहीं है। उसके अनुसार हिंदू राष्ट्र के लिए निर्णायक युद्ध होकर रहेगा व हिंदुओं के सिवाय जिसे भी इस देश में रहना होगा,उसे दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में नागरिकता स्वीकार करनी होगी। आरएसएस के सरसंघचालक रहे गुरु माधव सदाशिव गोलवलकर इन बातों का जिक्र वी ओर अवर नेशनहुड डिफाइंड व बंच ऑफ थॉट्स में साफ तौर पर करते हैं व गौरवान्वित होते हैं। इसलिए संघ परिवार जानता है कि भगत सिंह बेशक देश के हीरो हों परन्तु उनके हीरो कभी नहीं हो सकते क्योंकि भगत सिंह की सोच संघ परिवार से बिल्कुल विपरीत है व उसमें दिन-रात का अंतर है। वह भलीभांति जनता है कि बेशक अंग्रेजों ने भगत सिंह को फांसी देकर शहीद कर दिया है परंतु उनके विचार आज भी समाज में जिंदा हैं। उनको मारकर भी अंग्रेज़ उनके विचारों को नहीं मार पाए हैं।
भगत सिंह के विचार व संघ परिवार का डर

समरहिल चौक पर भगत सिंह की प्रतिमा अगर लग गयी तो वह सुबह,सवेरे,दिन,शाम,रात,हर पहर,हर घड़ी समरहिल की क्रांतिकारी धरती पर संघ परिवार की सोच को चुनौती देगी व उसे मुखर नहीं होने देगी। यह प्रतिमा उसकी संकीर्ण सोच को बेनकाब करेगी। वह लगातार उसके जनता व देश विरोधी विचारों का पर्दाफाश करेगी। वह इस पिछड़ी व दकियानूसी सोच का डटकर मुकाबला करेगी। संघ परिवार भलीभांति जानता है कि हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय शिमला के ऑडिटोरियम में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अक्सर मंचित हुए नाटक बुत्त जाग पेया की तर्ज़ पर भगत सिंह की प्रतिमा निर्जीव होते हुए भी सजीव हो उठेगी व क्रांति की बातें करेगी जबकि संघ परिवार तो प्रतिक्रांति का प्रतीक है,क्रांति से बिल्कुल विपरीत। इसलिए उनकी मजबूरी है कि भगत सिंह की प्रतिमा समरहिल चौक पर किसी भी रूप में स्थापित ना होने पाए। क्या विडम्बना है कि जो स्वामी विवेकानंद स्वयं समाजवाद के पक्षधर रहे व जिन्होंने धर्मांधता व साम्प्रदायिकता पर कड़ा प्रहार किया,आज उनकी सोच से बिल्कुल उलट संघ परिवार अपने विस्तार व फैलाव के लिए उन्हें ही इस्तेमाल कर रहा है। यह समरहिल चौक पर आज स्पष्ट महसूस हो रहा है। परंतु जब अपने पास आदर्शों व प्रतीकों की कमी है तो दूसरों के प्रतीकों को ग्रहण करके पोज़िंग व पोज़िशनिंग करने में संघ परिवार को कोई दिक्कत नहीं है। देखिए ना कमाल की बात है। जिन सरदार वल्लभभाई पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया,आज जवाहर लाल नेहरू को नीचा दिखाने के लिए वही पटेल आर एस एस के पोस्टर बॉय हो गए हैं। बिल्कुल वैसे ही कट्टरता व धर्मांधता की सोच से कोसों दूर स्वामी विवेकानंद आर एस एस के आदर्श हो गए हैं।  खैर इस बात से कुछ ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि भगत सिंह की प्रतिमा समरहिल चौक पर स्थापित हो या ना हो क्योंकि भगत सिंह तो देश की जनता के दिलों में स्थापित हैं। संघ परिवार व उसके हुक्मरान भगत सिंह की प्रतिमा को सत्ता के बल पर समरहिल चौक पर लगने से रोक सकते हैं परन्तु देश की जनता की रग-रग में बहते खून व हर घड़ी चलती सांसों में प्रवाहित होते भगत सिंह के विचारों को वे कैसे रोक पाएंगे। संघ परिवार अपने एजेंडा पर बेशक कायम रहे व शहीद भगत सिंह की प्रतिमा को समरहिल चौक पर स्थापित करने का विरोध करता रहे परन्तु यह सर्वविदित तथ्य है कि भगत सिंह कल भी जनता के रीयल हीरो थे,आज भी हैं व कल भी रहेंगे। याद रखिये,प्रतिमाओं से भगत सिंह नहीं बनते,वह बनते हैं जनता से व विचारों की सान पर।

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