बढ़ते कदम और चुनौतियां हज़ार
बढ़ते कदम और चुनौतियां हज़ार
विजेंद्र मेहरा
30 मई मजदूर संगठन सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियनज़ अथवा भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र का स्थापना दिवस है। इस दिन सन 1970 में मजदूरों के लोकप्रिय व पसंदीदा संगठन जिसे हम सभी सीआईटीयू व सीटू भी कहते हैं,का जन्म हुआ। एकता व संघर्ष की बुनियाद पर खड़े इस संगठन का लक्ष्य शोषणविहीन समाज की स्थापना है जहां इंसान के हाथों इंसान के शोषण पर रोक लगे। निश्चित तौर पर यह पूंजीवाद की कब्र खोद कर समाजवाद की स्थापना किए बिना सम्भव नहीं है। मजदूरों की एकता व वर्ग संघर्ष के ज़रिए ही शोषणमुक्त समाज की परिकल्पना सम्भव है। बगैर वर्ग संघर्ष व व्यवस्था परिवर्तन के मजदूरों की जिंदगी में आमूलचूल परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। इसी समझ की बुनियाद पर सूई से लेकर जहाज़ व हर वस्तु का उत्पादन करने वाले मजदूर वर्ग को इस पूंजीवादी युग में अपनी भूमिका को समझना है तथा शोषण,ज़ुल्म,अत्याचार,दमन की बुनियाद पर खड़े पूंजीवादी तंत्र को ध्वस्त करके न्याय,समानता,बराबरी सहित अपने सभी मौलिक अधिकारों को हासिल करने की लड़ाई लड़नी है। मजदूर वर्ग की मांगों को पूंजीपति शासक वर्ग की नीतियों से जोड़ना व उन नीतियों के पीछे की राजनीति को बेनकाब करना व उसका पर्दाफाश करना मजदूर वर्ग का बेहद महत्वपूर्ण कार्य है। इन नीतियों का प्रतिरोध करना व इनके खिलाफ संघर्ष बुलंद करना मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक कार्य है। इस तरह मजदूर वर्ग को आर्थिक संघर्ष के साथ राजनीतिक संघर्ष भी करना है ताकि शोषणकारी पूंजीवादी व्यवस्था का बदलाव हो सके। मजदूर वर्ग के वर्ग संघर्ष को कमज़ोर करने के लिए शासक वर्ग द्वारा अपनाई जा रही साम्प्रदायिकता,धार्मिक ध्रुवीकरण व पहचान की राजनीति का करारा जबाव देना व वर्ग संघर्ष को तेज करना भी मजदूर वर्ग की महत्वपूर्ण जिम्मेवारी है।
हम मेहनतकश जग वालों से
मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शब्द "हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे" मजदूर वर्ग की स्थिति,उसकी मांगों व उनके सपनों को न केवल स्पष्ट करते हैं बल्कि उन्हें हासिल करने के लिए हौंसलों को एक नई उड़ान देते हैं। ज़रा पूंजीवादी सिस्टम के दोहरेपन को समझिए तो। देश के करोड़ों मजदूरों ने खड़ी कीं देश की इमारतें,खोदी खानें-खदानें,बनाई सड़कें,नहरें और तैयार किया समाज का हर निर्माण परन्तु वही दो वक्त की रोटी से महरूम है। यही श्रम और पूंजी की लड़ाई है। पहाड़ों को चीरकर सुरंगें बनाने,गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण करने,उद्योगों में दुनिया की छोटी से छोटी व बड़ी से बड़ी चीजों का निर्माण करने व जनता को हर सामाजिक सेवा देने वाले मजदूर वर्ग की कहानी ही अनूठी है। उसे मिलती है न दो वक्त की रोटी,न मकान,न बच्चे को अच्छी शिक्षा,न परिवार को इलाज और न ही बुढ़ापे के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा। दुनिया में हर चीज को पैदा करने में मजदूर वर्ग का केवल खून पसीना व श्रम शक्ति नहीं लगी है बल्कि लगा है जीवन का हर एक कतरा। कड़ी मेहनत करने के बाद भी नसीब नहीं होती है उसे एक मुक्कमल जिंदगी। मजदूर वर्ग के हाथों व श्रम शक्ति से ही पैदा होता है अतिरिक्त मूल्य व मुनाफा। इसी से बनता है अमीर और ज़्यादा अमीर। बनता है वह लखपति से करोड़पति व करोड़पति से अरबपति। अमीर पूंजीपति,कारखानेदार,उद्योगपति के पास पैसा बनाने की कोई और मशीन नहीं सिवाय मजदूर वर्ग की श्रम शक्ति के। जब-जब ठहर जाती है मजदूर वर्ग के श्रम शक्ति की गति तो स्वतः ही रुक जाते हैं पूंजीवाद के पहिये। हो जाता है उत्पादन ठप्प। पर दुनिया का भाग्य विधाता मजदूर फिर भी है लाचार व गरीब। वह भूखों मरने को मजबूर है। दूसरों के तन को ढकने के लिए वस्त्र बनाने वाले मजदूर के बच्चे रह जाते हैं भूखे नंगे। दुनिया के आलीशान महलों का निर्माण करने वाले मजदूरों के बच्चे सोते हैं झुग्गी झोंपड़ियों में या सड़कों,फुटपाथों पर या खुद के बनाए संकरे टूटे फूटे एक या दो कमरों में। जिन स्कूलों का किया है उन्होंने निर्माण,वहां उनके बच्चों का पहुंचना है एक चुनौती क्योंकि पेट की आग व शिक्षा दोनों में से उनके बच्चों को चुननी पड़ती है पेट की आग। जिन अस्पतालों को बनाया उन्होंने,बीमारी पर उनका दरवाजा लांघने से पहले कांप जाती हैं उनकी टांगें क्योंकि इलाज के लिए नहीं होते जेब में दो आने भी। यही है पूंजीवादी व्यवस्था जहां पर दुनिया की हर चीज़ का उत्पादन करने वाले मज़दूर जीते हैं ज़िल्लत की जिंदगी और उनकी मेहनत पर ऐश करने वाले पूंजीपतियों के होते हैं वारे-न्यारे।
बढ़े चलो-लड़े चलो
आधुनिक मजदूर वर्ग का जन्म वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की देन है अतः उसका शोषण भी इसी व्यवस्था की देन है। मजदूर वर्ग के शोषण व मुनाफे पर आधारित इस व्यवस्था में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों की श्रम शक्ति की खुली लूट होती है। अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन भी मजदूर वर्ग ही करता है व इसी के आधार पर पूंजीपति मुनाफाखोरी करते हैं। यही मूल आधार है पूंजीपतियों के और अमीर होने का व मजदूरों के गरीब होने का। वर्तमान दौर में पूंजीपतियों तथा जनता,मेहनतकश अवाम व मजदूर वर्ग के मध्य अमीरी और गरीबी की खाई बढ़ने के पीछे भी यही पूंजीवादी आर्थिक नीतियां हैं जिन्हें नई आर्थिक नीतियों अथवा नव उदारवादी नीतियों के नाम से भी पुकारा जाता है। उदारीकरण,निजीकरण व वैश्वीकरण अर्थात भूमण्डलीकरण की नीतियां भी यही हैं। दुनिया की कुल जनसंख्या लगभग सात अरब नब्बे करोड़ है। इसमें से मजदूर वर्ग की संख्या तीन अरब बत्तीस करोड़ है। भारतवर्ष में मजदूरों की संख्या 51 करोड़ के करीब है। यह देश की कुल जनसंख्या का लगभग 36 प्रतिशत है। देश की कुल श्रम शक्ति का 94 प्रतिशत हिस्सा असंगठित मजदूर हैं। भारत की कुल श्रम शक्ति का 41 प्रतिशत हिस्सा कृषि मज़दूर हैं। औद्योगिक क्षेत्र में 26 प्रतिशत मजदूर कार्यरत हैं। सेवा क्षेत्र में 32 प्रतिशत मजदूर कार्य कर रहे हैं। भारत में नियमित सेलरी अथवा वेतन पर कार्य करने वालों में से 57 प्रतिशत लोगों का वेतन 10 हज़ार रुपये प्रतिमाह से भी कम है। वेतन से सम्बंधित दुनिया के 106 देशों के सम्बंध में जारी ग्लोबल रैंकिंग में भारत का स्थान 72वां है जोकि बेहद चिंताजनक है। दुनिया के मानवीय सूचकांक में भारत का स्थान 106वां है। यह स्थिति भयावह है। मोदी सरकार द्वारा 44 श्रम कानूनों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खत्म करके बनाए गए चार लेबर कोड़ों के ज़रिए फ्लोर वेज़ की जो बात की गई है,उस से वेतन की स्थिति और नीचे जाना तय है। यह बिडम्बना ही है कि नेशनल वेज़ के बजाए अभी भी फ्लोर वेज़ की बातें हो रही हैं। देश में मजदूर नियमित,आउटसोर्स,ठेका प्रथा,टेम्परेरी,कैज़ुअल,पार्ट टाइम,स्व रोज़गार आदि रूप में कार्यरत हैं। चौकीदार,वाटर गार्ड,जलवाहक,सफाईकर्मी,मल्टी टास्क व मल्टी परपज़ वर्करज़ तथा अन्य नियमित आदि मजदूर केवल चार से दस हज़ार रुपये प्रतिमाह कमा रहे हैं। सरकारी क्षेत्र में ठेका मजदूरों की संख्या कुल मजदूरों के 50 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गई है। निजी क्षेत्र में ठेका मजदूरों की संख्या 70 प्रतिशत से भी अधिक है। आंगनबाड़ी,मिड डे मील,आशा,एनएचएम आदि योजनाओं के माध्यम से कार्य करने वाले एक करोड़ योजनाकर्मियों का वेतन प्रतिमाह साढ़े तीन से नौ हज़ार रुपये है। औद्योगिक मजदूरों का न्यूनतम वेतन भी देश में दस से अठारह हज़ार के बीच है। एकमात्र केरल राज्य ही मजदूरों को प्रतिमाह 18 हज़ार रुपये न्यूनतम वेतन दे रहा है। इस तरह भारी महंगाई के इस दौर में मजदूरों का वेतन बेहद कम है। देश में उत्तर पूर्वीय राज्यों व हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों के मजदूरों का वेतन तो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक अथवा महंगाई सूचकांक तक से नहीं जुड़ा है।
वर्तमान भारतीय समाज में तीन तरह के वेतन की अवधारणा है। एक है सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन अथवा मजदूरी। दूसरा है संतोषजनक,न्यायोचित,अनुकूल,गौरवपूर्ण अथवा माकूल वेतन। तीसरा है जीने योग्य वेतन या मजदूरी। अभी तक तो देश के बहुतायत मजदूर वर्ग को न्यूनतम वेतन भी हासिल नहीं हो पा रहा है इसलिये संतोषजनक न्यायोचित अनुकूल वेतन व जीने योग्य वेतन का सवाल सपनों की ही बातें हैं। वर्ष 1948 में न्यायोचित अनुकूल वेतन निर्धारण के लिए समिति बनी परन्तु लागू हुआ केवल न्यूनतम वेतन। वर्ष 1957 के 15वें भारतीय श्रम सम्मेलन व वर्ष 1992 के माननीय सुप्रीम कोर्ट के रेपटाकोज़ ब्रेट एंड कम्पनी लिमिटेड आदेश के बावजूद भी मजदूरों को जीने योग्य वेतन कभी नहीं मिला। आउटसोर्स,ठेका व अन्य मजदूरों को 26 अक्तूबर 2016 के माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भी कभी भी समान कार्य का समान वेतन नहीं मिला। इन उदाहरणों से ही स्पष्ट है कि मजदूर कैसी जिंदगी जीने को मजबूर हैं। हिमाचल प्रदेश में साढ़े तीन लाख कारखाना मजदूर कार्यरत हैं। यहां पर जॉब कार्ड होल्डर मनरेगा मजदूरों की संख्या पन्द्रह लाख के करीब है। इन मनरेगा मजदूरों को प्रदेश सरकार द्वारा घोषित 350 रुपये दिहाड़ी से बहुत कम केवल 203 रुपये दिहाड़ी दी जा रही है। इनकी सामाजिक सुरक्षा न के बराबर है।
समाजवाद ही भविष्य है
एक तरफ मजदूरों के न्यूनतम वेतन का प्रश्न आज भी यक्ष प्रश्न है। दूसरी ओर लेबर कोड़ों के माध्यम से मजदूर वर्ग द्वारा सौ सालों की मेहनत व संघर्ष से बने श्रम कानूनों के ज़रिए हासिल सामाजिक सुरक्षा कठघरे में है। मजदूरों के 8 घण्टे के कार्य दिवस को बढ़ाकर 12 घण्टे करने के ज़रिए उन्हें बंधुआ मजदूर बनाने की पटकथा लिखी जा चुकी है। इसे मजदूरों को भ्रमित करने व उनकी संगठित शक्ति को छिन्न-भिन्न करने के लिए सप्ताह में आठ घण्टे के छः दिन के बजाए बारह घण्टे के चार दिन के कार्य दिवस का नाम भी दिया जा रहा है। मजदूरों की सामूहिक सौदेबाजी की ताकत छीनी जा रही है। हड़ताल पर एक तरह से अघोषित प्रतिबंध लग चुका है। हड़ताल करने पर भारी ज़ुर्माने, मुकद्दमों,जेल, 8 दिन के वेतन काटने जैसे डरावने प्रावधान हैं। नियमित किस्म का रोज़गार अब तक के सबसे निचले असुरक्षित स्तर फिक्स टर्म पर पहुंच चुका है। रोज़गार अब हायर एंड फायर बन चुका है। कभी भी रखो,कभी भी नौकरी से निकाल दो। जब मालिक एक साल का रोज़गार ही पूरा नहीं होने देंगे तो मजदूर का दर्ज़ा,उसके छंटनी भत्ते,नोटिस पे व ग्रेच्युटी का सवाल तो एक सवाल बनकर ही रह जाएगा। यह सब पूंजी को और ज़्यादा मजबूत करने के लिए श्रम का गला घोंटने का सवाल है। यह वास्तव में श्रम और पूंजी की लड़ाई का चरम है। जो पूंजी स्वयं के मुनाफे के लिए खुद को भी फांसी लगा सकती है,वह पूंजी अपने मुनाफे के लिए श्रम को फांसी लगाने चली हुई है। परन्तु पूंजीवाद को याद रखना चाहिए कि मजदूर वर्ग के हाथों पूंजीवाद की कब्र खुदना व समाजवाद की स्थापना तय है। मजदूर वर्ग न्याय,समानता व शोषण विहीन समाज की स्थापना के लिए अपने इस कार्य को बखूबी करेगा। वर्ग संघर्ष के विचार पर आधारित मजदूर संगठन सीटू अपनी स्थापना के 53वें साल में भी एकता व संघर्ष के औजार से पूंजीपतियों की लूट के खिलाफ लड़ाई जारी रखे हुए है। निश्चय ही विजय मजदूर वर्ग की होगी।
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