आंदोलन से आखिर इतनी नफरत क्यों
विजेंद्र मेहरा
आजकल आंदोलन शब्द के मायनों पर देश व दुनिया में खूब चर्चा चल रही है। यह बहस भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किसानों द्वारा किये जा रहे आंदोलन को आंदोलनजीवी कहने व उन्हें इस शब्द के ज़रिए अपमानित करने के बाद बहुत तेज़ हो गयी है। आंदोलन क्या होता है? इसके क्या मायने हैं? इस पर भारत के महान लेखक व उपन्यासकार मुंशी प्रेम चंद,जिनकी लेखनी मुख्यतः गरीबों व मेहनतकश अवाम पर थी,ने क्या खूब लिखा है।
तो यह कहा जाता है कि यह हमारा अंदरूनी मसला है। सरकार का दोहरा रवैया जगजाहिर है। आखिर इतनी तंग मानसिकता क्यों? अगर जनता विरोधी निर्णयों की आलोचना देशवासी करें तो उन्हें देशद्रोही व राष्ट्रद्रोही की संज्ञा दी जाती है और अगर अन्य देशों के लोग इन पर कुछ कहें तो यह हमारा अंदरूनी मामला हो जाता है।
प्रश्न यह है कि आखिर कुछ लोगों को आंदोलन शब्द से इतनी चिढ़ व परहेज़ क्यों है। क्यों वे आंदोलनकारियों का मज़ाक उड़ाते हैं? क्या वे आंदोलन से चिढ़ते हैं या फिर डरते हैं? इसे इनकी वैचारिक पृष्ठभूमि में ही समझें तो ज़्यादा बेहतर होगा। आंदोलन एक बुनियाद है पुराने से नए के सृजन का। आंदोलनों से ही रूढ़ियाँ टूटी हैं। बुरी व्यवस्थाएं ध्वस्त होकर नई बनी हैं चाहे उनमें कुछ कमियां ही क्यों न हों परन्तु पुराने की अपेक्षा कुछ बेहतर तो जरूर रही हैं। आन्दोलन का मतलब है शिथिलता का खत्म होना व एक बेहतर का आगमन। आंदोलन का मतलब है निष्क्रियता से सक्रियता का जन्म। प्रकृति व मानव जीवन की हलचल है आंदोलन। दुनिया का विकास अपने आप में आंदोलन है। दुनिया की तमाम सामाजिक व्यवस्थाएं देन हैं आंदोलन की। शोषणकारी दास प्रथा खत्म न होती अगर स्पार्टकाज़ व उनके साथियों ने आंदोलन न किया होता इसके विरुद्ध। दमनकारी राजाशाही के खिलाफ बुलन्द न होती आवाज़ अगर न लड़ी होती ब्रिटेन की जनता किंग चार्ल्स प्रथम,फ्रांस की जनता किंग लुईस सोलहवें व हिंदुस्तान की जनता यहां की सामन्तशाही से। लुटेरे पूंजीवाद की कब्र न खोदी गयी होती कई मुल्कों में अगर न लड़ा होता मेहनतकश आवाम इसके खिलाफ। तो फिर आंदोलन से प्रधानमंत्री को आखिर समस्या क्या है? क्यों वे आंदोलनकारियों को आन्दोलनजीवी कहते हैं,जैसे अपने अधिकार के लिए लड़ना कोई ज़ुर्म हो व यह परजीवी कार्य हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आन्दोलनजीवी जैसे जिन शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं,वह वास्तव में भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरु,महात्मा गांधी,भीमराव अंबेडकर,भगवती चरण वोहरा,रामप्रसाद बिस्मिल,अशफाकुल्लाह खान,सरदार उधम सिंह,मास्टर सूर्यसेन,सुभाष चन्द्र बोस,करतार सिंह सराभा जोकि देश की आज़ादी के लिए लड़े,जिन्होंने जेलें भुगतीं,शहादतें दीं व अनेकों दमन सहे,उनकी आंदोलनकारी व संघर्षमयी इतिहास,धरोहर व परम्परा का अपमान कर रहे हैं। वह साम्राज्यवादी शोषणकारी व दमनकारी सोच को बढ़ावा दे रहे हैं जोकि हमारे देश की विरासत कभी भी नहीं हो सकती है। जिस सकुंचित विचार के ध्वजवाहक प्रधानमंत्री मोदी हैं,वे डरते हैं आंदोलन से क्योंकि आंदोलन से पनपता है विकास,आगे बढ़ती है दुनिया। वे तो उस सोच के हिमायती हैं जो चाहते हैं कि हम सभी लौट जाएं,ज़ाहिलपन या पिछड़ेपन के उस युग में जहाँ कुछ भी न था सिवाए अज्ञानता व अंधकार के। जहां थीं जंज़ीरें। केवल जंज़ीरें। न केवल शरीर पर बल्कि बौद्धिकता के स्तर पर भी।
आंदोलन से ही तो ध्वस्त हुई हैं पिछड़ी व शोषणकारी व्यवस्थाएं। आंदोलन से ही तो चोट हुई है जातिवाद,साम्प्रदायिकता,नस्लवाद व लैंगिक असमानता जैसी बुराइयों व शोषणकारी व्यवस्थाओं पर। आंदोलन ने ही तो असली पहचान दी है जनता को एक मेहनतकश,मजदूर व किसान होने की। जो व्यवस्थाओं को बदलने में विश्वास करते हैं वे आंदोलन में विश्वास करते हैं। जो कायम रखना चाहते हैं यथास्थिति व पूंजीवादी शोषकों की लूट को,वे ही आंदोलन पर हंसते हैं,उस पर तंज कसते हैं क्योंकि उनका वर्गीय दृष्टिकोण साफ है। वे जारी रखना चाहते हैं लुटेरों की हुकूमत को। वे रखना चाहते हैं मेहनतकश अवाम को शोषण की गिरफ्त में व बनाये रखना चाहते हैं उन्हें सदा के लिए दास व गुलाम। आन्दोलन तोड़ता है गुलामी की इन ज़ंजीरों को व सिखाता है इंसान को इंसान होना। आंदोलन वास्तव में इंसान के होने,न होने का सवाल है। जो इसे समझते हैं,वह लड़ते हैं अपनी व आने वाली पीढ़ियों के लिए। एक बेहतर भविष्य के लिए आंदोलन का होना उतना ही अनिवार्य है जितना कि जीने के लिए सांसों व धमनियों में बहने वाले खून का होना। अब यह आप पर है कि आप आंदोलनकारियों के साथ हैं या फिर आज़ादी के आंदोलन के परजीवियों के साथ जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन का भी विरोध किया व अंग्रेजों से इस एवज में माफीनामे देकर पेंशनें पायीं या आज़ाद भारत में सत्ता।
Comments
Post a Comment